December 23, 2024
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सिंधी समाज भारत में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। विशेषकर व्यापार से जुड़ा यह वर्ग विभाजन पूर्व भारत के सिंध क्षेत्र के वासी थे। सूफी परंपरा से प्रेरित इस समुदाय की संख्या आज भारत में कम है लेकिन व्यापार के क्षेत्र में पूरे भारत में हमेशा से इनका बोलबाला रहा है।

देश के बंटवारे के बाद पाकिस्तान के सिंधु नदी किनारे बसने वाले लोग भारत आकर अलग-अलग जगह बस गए, लेकिन अपने आराध्य के प्रति सदा कृतज्ञ रहे। अपनी सभ्यता और संस्कृति के प्रति इनमें गहरा लगाव रहा है।

देशभर के झूलेलाल मंदिरो में उत्सवी माहौल है। सिंधी समाज के लोग 40 दिन का चालिहा पर्व हर्षोल्लास से मना रहे हैं। ये पर्व अनोखा इसलिए है क्योंकि ये उस तारणहार के प्रति धन्यवाद का पर्व है जिसने आज से करीब 1016 बरस पहले न सिर्फ इनकी जिंदगी की रक्षा की बल्कि इनके धर्म को भी बचाया। इस समय झूलेलाल मंदिर में झूलेलाल के गीत गूंज रहे हैं। अंदर विराजित प्रतिमा बुजुर्ग अवस्था के भगवान झूलेलाल की है। चेहरे पर सौम्यता, करुणा है और हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में। चेहरे की सौम्यता देखकर आप शायद ये अंदाजा भी नहीं लगा पाएंगे कि इतने सौम्य व्यक्ति के सामने कोई आततायी कैसे नतमस्तक हुआ होगा लेकिन झूलेलाल के सामने न सिर्फ आक्रांता मिरखशाह झुका बल्कि उसने अपनी फौज पर रहम करने की भीख मांगी।

भगवान झूलेलाल की पूरी कहानी और कौन था मिरखशाह

संवत् दस सौ सात मंझारा, चैत्र शुक्ल द्वितीया शुक्र वारा। ग्राम नसरपुर सिन्ध प्रदेशा, प्रभु अवतारे हरे जन क्लेशा।।

सिंधी समाज के लोगों ने बताया कि यह चौपाई सिंधी समाज के चालिहा पर्व पर प्रमुख रूप से गाई जाती है। इसका मतलब है ‘विक्रम संवत 1007 में चैत्र शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि शुक्रवार के दिन सिन्ध प्रांत के नसरपुर गांव में भगवान झूलेलाल का जन्म हुआ। उनका जन्म जनता के दुख क्लेश का विनाश करने के लिए हुआ।’ सिंधी समाज हर साल चैत्र शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि पर चालिहा पर्व मनाता है।

40 दिन तक चलने वाले पर्व में समाज के कुछ लोग कठिन उपवास करते हैं। इसमें तेल का तला नहीं खाते हैं, नमक से भी दूरी बनाकर रखते हैं। साथ ही बिस्तर पर भी नहीं सोते। जमीन पर साधारण चटाई बिछाकर सोना होता है। उपवास करने वाले लोग 40 दिन तक चप्पल-जूते भी त्याग देते हैं। प्रदेश भर में लगभग 9 लाख और देश में 27 लाख सिंधी समाजजन इस चालिहा पर्व को मनाते हैं। इस दौरान भगवान झूलेलाल की विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। मंदिरों में विशेष अखंड ज्योति जलाई जाती है।

सिंधी समाज का चालिहा पर्व वर्षा ऋतु में ही 16 जुलाई से 24 अगस्त तक मनाया जाता है। इस दौरान सिंधी समाजजन भगवान झूलेलाल के रूप में वरुण देव से विशेष प्रार्थना करते हैं कि वर्षा जनित बीमारियां न हों और बारिश से किसी का नुकसान न हो। वर्षा सिर्फ कल्याणकारी बने। चालिहा पर्व के दौरान हर शाम को समाजजन आरती करते हैं। आरती के बाद समाज के लोग बहिराणा साहिब को सिर लगाकर भगवान झूलेलाल का आशीर्वाद लेते हैं।

चालिहा के दौरान व्रत के नियम

मध्यप्रदेश के ग्वालियर निवासी सिंधी समाज के विशम्भर गुरु ने बताया कि इन 40 दिन में समाज के लोग विशेष व्रत भी रखते हैं। इस दौरान एक समय सात्विक भोजन होता है। मन को तामसिक भोजन से दूर रखा जाता है। इस दौरान ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है। 40 दिन तक उपवास रखने वालों को जमीन पर सोना होता है। 40 दिन तक बाल नहीं कटवाए जाते। रोजाना आरती में सम्मिलित होना होता है। 40 दिन के बाद दरिया (नदी के किनारे जाकर) बहिराणा साहब के विसर्जन के बाद जल का पूजन कर व्रत छोड़ा जाता है।

बहिराणा साहिब का महत्व

ग्वालियर के ही सिंधी समाज के सुभाष खुशीरमानी कहते हैं कि सिंधी समाज में बहिराणा साहिब को इष्टदेव का स्वरूप माना जाता है। बहिराणा साहिब का निर्माण आटे के पिंड से होता है, इसमें आटे को गूंथकर उसका पिंड बनाया जाता है। फिर इसमें अखा साहिब लोंग, इलाइची, पताशाव और अन्य सामग्री लगाई जाती है। साहिब की ओज अर्चना कर भ्रमण करवाकर चालिहा के अंत में नदी में प्रवाहित किया जाता है, जो नदी में रहने वाले जीवों का भोजन बनता है। इसके पीछे उद्देश्य होता है कि भगवान झूलेलाल पानी से अवतरित हुए थे, इसलिए जल में रहने वाले जीवों को भोजन मिल सके और उन्हें इससे हानि न हो।

सब दरवाजे बंद हुए तो ‘आयो लाल झूलेलाल’

भारतीय सिन्धू सभा युवा शाखा के प्रदेश सोशल मीडिया प्रभारी मनीष कुमार मलानी कहते हैं सिंध की राजधानी थट्टा की अपनी अलग पहचान और अलग प्रभाव था। यहां का शासक मिरखशाह अत्याचारी और दुराचारी था। वह मौलवियों के प्रभाव में आकर कट्टर इस्लामिक आक्रमणकारी बन गया था। उसने आसपास के क्षेत्र में इस्लाम को फैलाने के लिए अनेक आक्रमण किए और नरसंहार किया। उसने हिंदुओं के ‘पंच प्रतिनिधियों’ को बुलाया और उन्हें आदेश दिया कि ‘इस्लाम को गले लगाओ या मरने की तैयारी करो।’ मिरखशाह की धमकी से डरे हिंदुओं ने इस पर विचार करने को कुछ समय मांगा जिस पर मिरखशाह ने उन्हें 40 दिन का समय दिया।

कहते हैं जब इंसान के लिए सब दरवाजे बंद हो जाते हैं तो उसके पास ईश्वर के अलावा कोई सहारा नहीं रहता। भगवान श्रीकृष्ण के भगवद्गीता के उद्बोधन का उल्लेख करते हुए तत्कालीन ग्राम प्रमुख ने कहा कि भगवान ने कहा है जब-जब पाप सीमा लांघेगा और धर्म पर खतरा बढ़ेगा मैं अवतार लूंगा।

मनीष कुमार मलानी ने कहा कि सामने मौत और धर्म पर संकट देख सिंधी हिंदुओं ने नदी (जल) के देवता वरुण देव की ओर रुख किया। चालीस दिनों तक हिंदुओं ने कठोर तपस्या की। ना बाल कटवाए, ना कपड़े बदले और ना भोजन किया। उपवास कर केवल ईश्वर की स्तुति और प्रार्थना कर रक्षा की उम्मीद लिए बैठे रहे। 40वें दिन स्वर्ग से एक आवाज आई- डरो मत, मैं तुम्हें उसकी बुरी नजर से बचाऊंगा। मैं एक नश्वर के रूप में नीचे आऊंगा। नसरपुर के रतनलाल के घर माता देवकी के गर्भ में जन्म लूंगा। ऐसा ही हुआ। बच्चे का जन्म हुआ। नाम उदयलाल रखा गया। बाद में उदेरोलाल। कहते हैं बच्चे का पालना अपने आप ही झूलने लगता था, इसलिए उन्हें झूलेलाल भी कहा जाने लगा। पैदा होने के बाद बच्चे को दूध पिलाने के लिए मुंह खोला गया तो ये देखकर सब हैरान रह गए कि उनके मुंह में सिंधु नदी बह रही थी।

इस बीच हिंदू पंचों ने मिरखशाह को बताया कि उनका तारणहार आ चुका है। अहंकार में डूबे मिरख ने कहा कि ये और भी अच्छा है। अब मैं तुम्हें मारूंगा नहीं। तुम्हारे तारणहार को इस्लाम कबूल कराऊंगा, ताकि तुम सब अपनी आंखों से देख सको कि तुम्हारा तारणहार कितना बेबस है।

मिरखशाह ने अपने सिपाहियों से कई बार उदेरोलाल पर हमले कराए, लेकिन हर बार वो किसी तरह जान बचाकर लौटे। उनमें से कुछ तो उदेरोलाल के भक्त हो गए। आखिरकार जब मिरखशाह का सामना उदेरोलाल से हुआ तो उसने सैनिकों से उदेरोलाल को गिरफ्तार करने को कहा, जैसे ही सैनिक आगे बढ़े। पानी की ऊंची लहरों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया। मिरख का महल आग की लपटों में घिर गया। मिरख घुटनों पर आ गया। जान की भीख मांगी। दया सिंधु उदेरोलाल ने उसे क्षमा कर दिया। इसके बाद मिरख उदेरोलाल यानी झूलेलाल का प्रचार-प्रसार करने लगा। सिंधी समाज के लोग आज भी चालिहा पर्व के समापन पर झूलेलाल जयंती मनाते हुए गाते हैं-आयो लाल! झूलेलाल

जल और अग्नि का महत्व

डॉक्टर नरेश देव ने बताया सिंधी समाज में चलिहा पर्व और भगवान झूलेलाल की पूजा-अर्चना में जल और अग्नि का विशेष महत्व है। मान्यता अनुसार, जल से ही भगवान झूलेलाल अवतरित हुए थे। जब समाज के लोगों ने भगवान का आह्वान किया था, तब अग्नि से पूजा की गई थी, इसलिए चालिहा पर्व के 40 दिन एक अखंड ज्योति भी जलाई जाती है। जो सामान्य तौर पर मंदिर में या जो उपवास रखता है उसके घर में जलाई जाती है। 40 दिन बाद इसकी पूजा कर इसे विसर्जित किया जाता है।

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