सिटी टुडे। सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 को सार्वजनिक अधिकारियों के कार्यों में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाने के लिए लागू किया गया था। हालांकि, यह सवाल उठता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट की निर्णय प्रक्रिया, विशेष रूप से न्यायाधीशों की नियुक्ति और अन्य आंतरिक मामलों से संबंधित, RTI अधिनियम के तहत खुलासा के लिए खुली होनी चाहिए।
RTI अधिनियम के तहत, नागरिकों को किसी भी “सार्वजनिक प्राधिकरण” से जानकारी प्राप्त करने का अधिकार है, जिसे धारा 2(h) में परिभाषित किया गया है। इसमें संविधान के तहत स्थापित कोई भी प्राधिकरण या निकाय शामिल है।
इस मुद्दे को सुलझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने कई महत्वपूर्ण फैसलों का संदर्भ लिया:
1. एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ (1981): यह मामला, जिसे न्यायाधीशों के स्थानांतरण का मामला भी कहा जाता है, सार्वजनिक जानने के अधिकार की व्याख्या के लिए महत्वपूर्ण है। कोर्ट ने कहा कि जनता को यह जानने का अधिकार है कि सार्वजनिक अधिकारी कैसे कार्य करते हैं, खासकर उन मामलों में जो सीधे जनता को प्रभावित करते हैं। हालांकि, इसने संवैधानिक पदाधिकारियों के बीच गोपनीय संचार की सुरक्षा की आवश्यकता को भी मान्यता दी।
2. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017): इस ऐतिहासिक फैसले में कोर्ट ने गोपनीयता के अधिकार को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी। इस फैसले में यह निर्धारित करने के लिए तीन-स्तरीय परीक्षण रखा गया कि गोपनीयता का उल्लंघन करने वाला कोई भी कार्य वैध है या नहीं: (i) कानून का अस्तित्व, (ii) वैध राज्य उद्देश्य, और (iii) आनुपातिकता। यह परीक्षण यह निर्धारित करने में महत्वपूर्ण है कि क्या RTI अधिनियम के तहत जानकारी का खुलासा उचित है।
3. CBI बनाम आर.के. डालमिया (1962): इस मामले में “सार्वजनिक हित” के दायरे पर चर्चा की गई और कैसे इसे कुछ मामलों में गोपनीयता की आवश्यकता के खिलाफ तौलना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि पारदर्शिता महत्वपूर्ण है, लेकिन इसे संवैधानिक निकायों के कार्यों को बाधित करने वाली संवेदनशील जानकारी को जोखिम में डालने की कीमत पर नहीं आना चाहिए।