MP में चुनाव से पहले CM फेस को लेकर भाजपा-कांग्रेस में कयासों का दौर जारी है। यहां बात कांग्रेस की हो रही है। पार्टी के ज्यादातर लोग पूर्व सीएम कमलनाथ को CM चेहरा मान रहे हैं। पार्टी की महासचिव प्रियंका गांधी के सामने भी दो बार पार्टी के नेता सीएम फेस के तौर पर पार्टीजन कमलनाथ का जिक्र कर चुके हैं। कांग्रेस विधायक एवं पूर्व मंत्री उमंग सिंघार द्वारा आदिवासी सीएम की मांग ने नई चर्चा छेड़ दी है। धार जिले के बदनावर के कोटेश्वर और बोरदा में टंट्या मामा की मूर्ति के अनावरण कार्यक्रम में उमंग सिंघार ने आदिवासी सीएम की मांग उठाकर पार्टी को सकते में ला दिया है। उमंग ने मंच से आदिवासी नेता कांतिलाल भूरिया का नाम लेकर कहा कि उन्हें बनाना ही था तो चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष की बजाए सीएम फेस बनाते।” मंगलवार को कमलनाथ ने पलटवार करते हुए कहा कि “किसी के कहने या न कहने से कोई फर्क नहीं पड़ता, कहने वाला क्या है सबको पता है.” हमने राजनीतिक विश्लेषकों से बात की, कि क्या एमपी में आदिवासी सीएम संभव है? प्रदेश में 22 प्रतिशत आबादी के बावजूद कोई आदिवासी चेहरा मुख्यमंत्री की रेस में आगे क्यों नहीं आ पा रहा है? सबसे पहले बताते हैं कि उमंग सिंघार ने बोला क्या है? गंधवानी से कांग्रेस विधायक उमंग सिंघार ने कहा, “मैं आप लोगों से कहना चाहता हूं कि जब तक मध्यप्रदेश में आदिवासी मुख्यमंत्री नहीं बनेगा, तब तक घर नहीं बैठना है। मुख्यमंत्री हमारे समाज का आदिवासी बनना चाहिए।” मैं नेताओं का चहेता नहीं हूं। मैं आदिवासियों का चहेता हूं। मैं समाज की बात करता हूं। आपके हक की बात करता हूं, इसलिए कई नेताओं को मिर्ची लगती है। मैं डरने वाला नहीं हूं।”विधायक उमंग सिंघार ने यह बयान रविवार को धार जिले में दिया। हालांकि, उन्होंने ये साफ कर दिया कि वे अपनी बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि अपने समाज में से किसी अन्य को सीएम बनाने की बात कर रहे हैं। बदनावर में आदिवासियों के शोषण का लगाया आरोप सिंघार ने इस दौरान बीजेपी को घेरते हुए कहा कि मुझ पर न जाने कितने केस लगा दिए हैं, लेकिन मैं डरने वाला आदमी नहीं हूं, जंगल का शेर हूं, मुझे शिकार करना आता है।” उन्होंने बदनावर का उल्लेख करते हुए कहा कि इस सीट पर आदिवासियों का शोषण हो रहा है। उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा कि आदिवासी यदि तीर रखता है तो कमान और फालिया भी रखता है। माछलिया घाट से लेकर बदनावर तक विधानसभा हमारी है। मैं उन राजा महाराजा को कहना चाहता हूं कि यदि कहानियां राजा महाराजाओं की लिखी जाती हैं तो इतिहास आदिवासियों का भी लिखा जाता है। आपकी इस ताकत से सरकार हिलने लगी है। इस ताकत को पहचानो। आदिवासी हर युग में भारत का सरताज रहा है। एमपी में आदिवासी सीएम की मांग कितनी जायज प्रदेश में आदिवासियों की आबादी करीब 22 प्रतिशत हैं। 230 में से 47 सीट आदिवासियों के लिए रिजर्व हैं। प्रदेश में 54 साल से कोई आदिवासी मुख्यमंत्री नहीं बना है। 13 दिन आदिवासी सीएम रहने का रिकॉर्ड राजा नरेश चंद्र सिंह के नाम है। वे पहली और आखिरी आदिवासी सीएम साबित हुए। 1993 से अब तक के चुनावी आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो साफ है कि प्रदेश में सत्ता उसी की बनी, जिसके साथ आदिवासी वोटर हुए। 1993, 98 और 2018 में आदिवासियों ने कांग्रेस को सत्ता दिलाई थी। प्रदेश में अभी तक सबसे अधिक 7 सीएम ब्राह्मण, 3 ठाकुर, 3 ओबीसी, एक जैन, एक पंजाबी और एक आदिवासी वर्ग से हुए हैं। इसी का हवाला देते हुए उमंग सिंघार सवाल उठाते हैं कि जब हर वर्ग के लोग सीएम बन चुके हैं तो आदिवासी समाज से सीएम क्यों नहीं हो सकता?
उमंग सिंघार के इस दावे में दम है कि प्रदेश में चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, बिना आदिवासियों को साथ लाए वो सरकार नहीं बना पाए। प्रदेश में पिछले 30 सालों की राजनीति पर नजर दौड़ाएं तो साफ है कि आदिवासी जिसके साथ रहे, उसी की प्रदेश में सरकार बनी। 1993 में संयुक्त एमपी में आदिवासियों के लिए 75 सीट रिजर्व थी। तब कांग्रेस को 55 और बीजेपी को 16 सीटों पर सफलता मिली थी। 4 सीटें अन्य के खाते में गई थीं। प्रदेश में राम मंदिर आंदोलन के प्रभाव के बावजूद कांग्रेस 174 सीटों के साथ सरकार बनाने में सफल रही और दिग्विजय सिंह पहली बार मुख्यमंत्री बने थे। 1998 में 172 विधानसभा सीटों के साथ दिग्विजय सिंह की सरकार रिपीट हुई, तो इसके पीछे आदिवासियों का समर्थन ही था। 75 सीटों में 50 पर कांग्रेस को जीत मिली थी। जबकि बीजेपी को 23 और दो सीट अन्य जीतने में सफल हुए थे। 2003 में आदिवासियों की नाराजगी का फायदा BJP को मिला 2003 में एमपी में जब चुनाव हुए, तो छत्तीसगढ़ अलग राज्य बन चुका था। प्रदेश में आदिवासियों के लिए 41 सीट ही रिजर्व की गई थीं। जनता में कांग्रेस सरकार के खिलाफ असंतोष था। आदिवासी भी नाराज हो गए। नतीजा ये हुआ कि भाजपा ने आदिवासियों के लिए रिजर्व 41 सीट में से 37 जीत ली। दो सीट गोंगपा और इतनी ही सीटें कांग्रेस को मिली थी। 2008 में प्रदेश में आदिवासियों के लिए रिजर्व सीटों की संख्या 41 से बढ़ाकर 47 कर दी गई। एक बार फिर आदिवासियों का अधिक समर्थन बीजेपी को मिला। इस बार बीजेपी को 29 तो कांग्रेस को 17 सीटें मिलीं। एक सीट पर निर्दलीय को सफलता मिली। 2013 में बीजेपी के 31 और कांग्रेस के 15 आदिवासी विधायक चुने गए। एक सीट निर्दलीय के खाते में गई। 2018 में एक बार फिर आदिवासी कांग्रेस की ओर लौटे। आदिवासियों के बीच सक्रिय जयस से गठबंधन का कांग्रेस को फायदा हुआ। कांग्रेस को 47 सीट में 29 तो भाजपा को 17 सीट से संतोष करना पड़ा। भगवानपुरा की एक सीट निर्दलीय ने जीत ली। उमंग के बयान पर भूरिया बोले- नो कमेंट्स कांग्रेस विधायक उमंग सिंघार की आदिवासी सीएम की मांग को लेकर जब कांतिलाल भूरिया से बात की, तो उन्होंने कोई भी प्रतिक्रिया देने से मना कर दिया। बोले कि उमंग जी ने क्या कहा, उसे देखना पड़ेगा। मैं दो दिन बाद भोपाल में आऊंगा, तब आमने-सामने बैठकर बात करेंगे। अभी मेरी ओर से इस मामले में कोई टिप्पणी नहीं है।
54 साल पहले 13 दिन के लिए बना था प्रदेश का पहला आदिवासी सीएम प्रदेश में 54 साल पहले 13 दिन के लिए प्रदेश का पहला आदिवासी सीएम बना था। साल था 1969 का। तब पहली बार प्रदेश में गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी। राजमाता विजयाराजे सिंधिया की अगुवाई में गठित विपक्षी मोर्चा की संविद सरकार में गोविंद नारायण सिंह मुख्यमंत्री बने थे। आपसी कलह के चलते उन्होंने 12 मार्च 1969 को इस्तीफा दे दिया।
13 मार्च को नरेशचंद्र सिंह मुख्यमंत्री बने। 14वें दिन यानी 25 मार्च को उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। नरेशचंद्र सिंह कांग्रेस विधायकों के साथ बगावत कर संविद सरकार में शामिल हो गए। उधर, गोविंद नारायण सिंह अपने साथ विधायकों को तोड़कर कांग्रेस में चले गए। इससे संविद सरकार अल्पमत में आ गई। सीएम रहे नरेशचंद्र सिंह ने इस्तीफा देकर राजनीति से संन्यास ले लिया।
प्रदेश में 54 साल पहले 13 दिन के लिए प्रदेश का पहला आदिवासी सीएम बना था। साल था 1969 का। तब पहली बार प्रदेश में गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी। कौन थे राजा नरेशचंद्र सिंह गोंड आदिवासी राजा नरेशचंद्र सिंह छत्तीसगढ़ स्थित सारंगढ़ राज्य के शासक थे। 1946 में पिता जवाहिर सिंह के निधन के बाद वे राजा बने थे। उन्होंने एक जनवरी 1948 को भारत में अपने राज्य का विलय किया था। इसके बाद राजा नरेशचंद्र कांग्रेस में शामिल हो गए। 1952 में उन्होंने पहला चुनाव जीता। मध्यप्रदेश की पहली विधानसभा में पंडित रविशंकर शुक्ल के मंत्रिमंडल में बिजली और पीडब्ल्यूडी के कैबिनेट मंत्री बने। सरकार और आदिवासियों के बीच उन्होंने एक सेतु के रूप में काम किया। 1954 में आदिवासियों के कल्याण के लिए अलग से विभाग बनाने के लिए एक कमेटी बनी। कमेटी की सिफारिश पर आदिवासी कल्याण विभाग बना। बाद में नरेशचंद्र 1955 में इस विभाग के मंत्री बने तो 1967 तक रहे। राजा नरेशचंद्र दूसरी, तीसरी, चौथी विधानसभा के सदस्य चुने गए थे। उनके राजनीति से संन्यास के बाद उनकी विरासत पत्नी और बेटियों ने आगे बढ़ाई। 1967 के लोकसभा चुनाव में राजकुमारी रजनीगंधा देवी चुनाव जीतीं। कमला देवी विधानसभा की सदस्य बनी। पुष्पा देवी सिंह तीन बार लोकसभा चुनाव जीतीं। 1980 उन्होंने तत्कालीन पीएम रहीं इंदिरा गांधी के कहने पर बेटी पुष्पा को रायगढ़ से लोकसभा चुनाव लड़ाया था। उनकी सीट पुसौर से पत्नी ललिता देवी निर्विरोध चुन ली गईं थीं। नरेशचंद्र की पांच औलादों में से चार बेटियां थी, इनमें से तीन राजनीति में आईं। बड़ी बेटी कमला देवी 1971 से 1989 तक विधायक के साथ ही मंत्री रहींं। दूसरी, रजनीगंधा और तीसरी पुष्पा लोकसभा सदस्य रहीं। चौथी, मेनका समाजसेवा में हैं। नरेश के बेटे शिशिर बिंदु सिंह भी एक बार विधायक रह चुके हैं। राजनीतिक विश्लेषक बोले- उमंग की मांग जायज आदिवासी सीएम की मांग कर रहे उमंग सिंघार के बयान पर राजनीतिक विश्लेषक अरुण दीक्षित कहते हैं कि उमंग सिंघार की बुआ ने कई साल पहले कहा था कि मैं दिग्विजय सिंह के तंदूर में जल रही हूं। वो बेचारी डिप्टी सीएम पद तक रह गईं, उन्हें कभी सीएम बनने का मौका नहीं मिला। ऐसे ही प्यारेलाल कंवर आए। शिवभानु सिंह सोलंकी का नाम तय होते-होते अर्जुन सिंह आ गए थे। मप्र में बीजेपी हाे या कांग्रेस दोनों ही पार्टियों ने आदिवासियों के साथ छल तो किया है। आदिवासियों को जो उनका हक मिलना चाहिए, वो नहीं मिला है। आदिवासियों को सिर्फ झुनझुने पकड़ाए गए, जिसे आज भी दिए जा रहे हैं। उमंग की मांग जायज है, लेकिन हमें नहीं लगता है कि कोई भी दल आदिवासी सीएम की बात पर आगे बढ़ेगा।