मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की ग्वालियर बेंच ने हाल ही में कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 बी (2) के तहत अर्जी दाखिल करने और अनुमति देने के बीच छह महीने की कूलिंग अवधि की आवश्यकता निदेशिका (डायरेक्ट्री) है, न कि अनिवार्यता । कोर्ट उस याचिका पर विचार कर रहा था, जिसमें पक्ष फैमिली कोर्ट द्वारा पारित उस आदेश को चुनौती दे रहे थे, जिसमें कूलिंग अवधि को समाप्त करने की उनकी प्रार्थना को खारिज कर दिया गया था।
दंपती ने 16 फरवरी 2020 को शादी की थी, लेकिन “असंगत मतभेदों” के कारण वे शादी के 12 दिन बाद ही अलग हो गए थे। अलग होने के एक साल से अधिक समय के बाद, पार्टियों ने अधिनियम की धारा 13 बी के तहत एक अर्जी दायर की, जिसमें आपसी सहमति से तलाक की डिक्री की मांग की गई थी। हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13बी की उप-धारा (2) में प्रावधान है कि कोर्ट दोनों पक्षों के प्रस्ताव पर विवाह भंग करके तलाक की डिक्री दे सकता है। यह तलाक डिक्री देने की तारीख से प्रभावी होगी, लेकिन ये प्रस्ताव 13बी की उपधारा (1) में निर्दिष्ट याचिका की प्रस्तुति की तारीख के छह महीने से पहले और उक्त तारीख के 18 महीने के बाद नहीं होने चाहिए, बशर्ते इस अवधि के दौरान याचिका वापस नहीं ली गयी हो।
छह महीने की कूलिंग अवधि को समाप्त करने की उनकी प्रार्थना को पिछले महीने फैमिली कोर्ट ने इस आधार पर खारिज कर दिया था कि उनका मामला ‘अमरदीप सिंह बनाम हरवीन कौर’ मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित मापदंडों के तहत नहीं आता है। इससे आहत होकर दोनों पक्षों ने हाईकोर्ट का रुख किया। हिंदू विवाह अधिनियम के पीछे विधायी मंशा का विश्लेषण करते हुए जस्टिस एमआर फड़के ने कहा कि धारा 13 बी “विवाह के दोनों पक्षों” को वैसे मामले में अनावश्यक कटु मुकदमे से बचाने या कटुता कम करने में सक्षम बनाता है, जहां विवाह भंग हो सकता है, जिसे वापस पटरी पर नहीं लाया जा सकता है और पति-पत्नी दोनों ने पारस्परिक रूप से अलग होने का निर्णय ले लिया हो।
कोर्ट ने आगे कहा कि धारा 13बी (2) के तहत छह महीने की कूलिंग अवधि उन्हें अपने मतभेदों को सुलझाने और अपनी शादी को बचाने का मौका देने के लिए निर्धारित की गई थी, अगर वे ऐसा करना चाहते हैं। “जहां सुलह की संभावना है, भले ही हल्की फुल्की संभावना क्यों न हो, तलाक की याचिका दायर करने की तारीख से छह महीने की कूलिंग अवधि लागू की जानी चाहिए। हालांकि, अगर सुलह की कोई संभावना नहीं है, तो समस्या को लम्बा खींचना व्यर्थ होगा। इस प्रकार, यदि विवाह असंगत तरीके से टूट गया है और पति-पत्नी लंबे समय से अलग रह रहे हैं, लेकिन अपने मतभेदों को समेटने में सक्षम नहीं हैं, साथ ही यदि उन्होंने पारस्परिक रूप से अलग होने का फैसला कर लिया है, तो शादी को समाप्त करना बेहतर है, ताकि दोनों पति-पत्नी अपने जीवन में अलग-अलग रास्ते पर सक्षमता से बढ़ सकें।”’
अमरदीप सिंह मामले’ के प्रासंगिक अंशों का हवाला देते हुए, कोर्ट ने कहा कि फैमिली कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों का गलत अर्थ निकाला था। कोर्ट ने कहा कि धारा 13-बी(2) में उल्लिखित अवधि अनिवार्य नहीं, बल्कि निर्देशिका है। मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, कोर्ट ने पाया कि 6 महीने की प्रतीक्षा अवधि को माफ करने के लिए पक्षकारों की प्रार्थना को खारिज करने के लिए फैमिली कोर्ट उचित फोरम नहीं था। “दोनों पक्ष केवल 12 दिनों की अवधि के लिए एक साथ रहे थे और इस तरह शादी की शुरुआत ढंग से हुई ही नहीं। दोनों ने कहा था कि सुलह के सभी प्रयास विफल हो गए थे और वे पति-पत्नी के रूप में एक साथ रहने को तैयार नहीं हैं। यहां तक कि उन्होंने 50-50 लाख रुपये के दो डिमांड ड्राफ्ट (संख्या 056621 और 056622) फैमिली कोर्ट जमा कराके एक करोड़ रुपये की स्थायी गुजारा भत्ते की राशि भी दे दी थी और केवल इसलिए कि पहला प्रस्ताव डालने से डेढ़ साल की अवधि पूरा होने में नौ दिन कम रह गए थे, वह भी सहमति से विवाह-विच्छेद की याचिका दाखिल करने की तिथि अर्थात् 22/08/2022 को, जो अवधि अब समाप्त हो चुकी है, विद्वान फैमिली कोर्ट का छह माह की अवधि को माफ करने के आवेदन को अस्वीकार करना अधिनियम की धारा 13बी (2) के तहत न्यायोचित नहीं था और पक्षकारों को इस प्रकार प्रतीक्षा कराने से कोई उपयोगी उद्देश्य पूरा नहीं होगा। “उपरोक्त टिप्पणियों के साथ, कोर्ट ने आक्षेपित आदेश को रद्द कर दिया और आगे फैमिली कोर्ट को मामले के तथ्यों और परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में अपने विवेक का प्रयोग करते हुए मामले को नए सिरे से तय करने का निर्देश दिया। तद्नुसार, याचिका स्वीकार की जाती है और उसका निपटारा किया जाता है। केस : श्रीमती वंदना गोयल बनाम प्रशांत गोयल