December 23, 2024
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जज जहां कॉलेजियम सिस्टम को न्यापालिका की स्वतंत्रता में सरकार का दखल न देने के तौर पर देखते हैं, वहीं केंद्र सरकार का मानना है जज इस सिस्टम के जरिए राजनीति और गुटबाजी में व्यस्त रहते हैं.

भारत में उच्च न्यायपालिका यानी सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति अब गंभीर विवादों के घेरे में है. इस विवाद में अब तक कुछ नेता, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता या लेखक-बुद्धिजीवी ही शामिल थे. अब इस विवाद में सरकार खुद कूद पड़ी है.

केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने पिछले दिनों अहमदाबाद में आरएसएस की पत्रिका पांचजन्य के एक कार्यक्रम और उससे पहले उदयपुर में भावी कानूनी मुद्दों पर आयोजित कॉन्फ्रेंस में बोलते हुए जजों की नियुक्ति के वर्तमान कॉलेजियम सिस्टम पर कुछ गंभीर सवाल उठाए.

आपत्तियां चार बिंदुओं पर हैं.

1. कॉलेजियम सिस्टम संविधान की व्यवस्थाओं के खिलाफ है क्योंकि जजों की नियुक्ति जजों का नहीं, सरकार का काम है. जजों द्वारा जजों की नियुक्ति का सिस्टम दुनिया में कहीं और नहीं है.

2. कॉलेजियम सिस्टम के कारण जजों के बीच आपसी पॉलिटिक्स होती है और जज फैसला लिखने से ज्यादा ध्यान इस बात पर लगाते हैं कि कौन जज बने. इस वजह से जजों के बीच गुटबाजी होती है और नियुक्तियों में देरी होती है.

3. इस सिस्टम में भाई-भतीजावाद है क्योंकि ज्यादातर जज अपने रिश्तेदारों और जान-पहचान वालों की ही सिफारिश जज बनाने के लिए करते हैं.

4. कॉलेजियम सिस्टम आने से पहले यानी 1993 से पहले जो व्यवस्था थी, उससे बेहतर जज बन रहे थे और विवाद भी कम होता था.

शिलांग में आयोजित एक कार्यक्रम में कानून मंत्री ने अपनी बातों को दोहराया. यहां उन्होंने न्यायिक प्रक्रिया में होने वाली देरी का मामला भी उठाया और कहा कि मैंने कॉलेजियम सिस्टम पर जो सवाल उठाए हैं उनका स्वागत हुआ है. कानून मंत्री द्वारा बार-बार इस बारे में सवाल उठाए जाने से ये लगता है कि केंद्र सरकार जजों की नियुक्ति की वर्तमान व्यवस्था की खामियों को लेकर गंभीर है और इस पर बहस कराना और मुमकिन है कि इस व्यवस्था में सुधार करना या इसे बदलने की सोच रही है.

कॉलेजियम सिस्टम हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति की व्यवस्था है. ये व्यवस्था संविधान से नहीं आई है और न ही इसके लिए संसद में कोई कानून पास किया है. ये व्यवस्था सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों (जजेज केस) से आई है. इसके मुताबिक,

– सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति और हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस और जजों के ट्रांसफर के फैसले सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस और चार अन्य सबसे सीनियर जजों का समूह करता है.

– हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस की नियुक्ति की सिफारिश सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस और दो सबसे सीनियर जजों का समूह करता है.

– हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति की सिफारिश उस हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस और दो सबसे सीनियर जजों का समूह करता है. इन सिफारिशों की समीक्षा सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस और दो सबसे सीनियर जज करते हैं.

जजों के समूह यानी कॉलेजियम द्वारा की गई सिफारिशों को मानना सरकार (राष्ट्रपति) के लिए अनिवार्य होता है. सरकार चाहे तो कॉलेजियम से एक बार ये अनुरोध कर सकती है कि वह अपनी सिफारिश पर पुनर्विचार करे, लेकिन कॉलेजियम ने वही सिफारिश फिर से भेज दी, तो सरकार के लिए उसे मंजूर करना जरूरी होता है. यानी कॉलेजियम सिस्टम में सरकार की भूमिका सलाह देने या अपनी असहमति जताने तक सीमित है. इसे मानना या न मानना जजों के समूह के हाथ में है.

संविधान में उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति में राष्ट्रपति यानी कार्यपालिका (सरकार) को प्राथमिकता दी गई है. संविधान के अनुच्छेद 124 (2) के मुताबिक ‘उच्चतम न्यायालय के और राज्यों के उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करने के पश्चात, जिनसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए परामर्श करना आवश्यक समझे, राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा उच्चतम न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा.’ संवैधानिक भाषा में इस अनुच्छेद में जो लिखा है, उसका मतलब है कि राष्ट्रपति जजों की नियुक्त के लिए जजों से परामर्श (Consultation) ले सकता है. इसमें राष्ट्रपति की सर्वोच्चता निहित है.

परामर्श बनाम सहमति: जजेज केस का फैसला

ये व्यवस्था 1993 तक चलती रही. हालांकि, इस बीच जजों की नियुक्तियों से संबंधित कई विवाद हुए जिसमें कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच खींचतान भी शामिल है. 1981 में पहले जजेज केस में परामर्श का अर्थ राय-विचार लेना बताया गया, लेकिन 1993 में दूसरे जजेज केस में सुप्रीम कोर्ट ने अपना पुराना फैसला बदल दिया और परामर्श का मतलब ‘सहमति’ बताया. आम भाषा में इसका मतलब ये हुआ कि जजों की नियुक्ति के लिए जजों की सहमति चाहिए यानी जज जिसे कहेंगे, उन्हें राष्ट्रपति जज नियुक्त करेंगे. इसी फैसले से कॉलेजियम सिस्टम अस्तित्व में आया. 1998 में तीसरे जजेज केस में कॉलेजियम सिस्टम की कार्यप्रणाली का निर्धारण हुआ.

ऐसा माना गया कि इस व्यवस्था में न्यायपालिका की स्वतंत्रता और स्वायत्तता की रक्षा होगी और सरकार के हस्तक्षेप से न्यायपालिका को बचाया जा सकेगा. चूंकि इससे पहले, खासकर इंदिरा गांधी के शासनकाल में सरकार द्वारा न्यायपालिका को प्रभावित करने के मामले हुए थे, इसलिए जनमत भी इस पक्ष में था कि न्यायपालिका को सरकार के हस्तक्षेप से बचाया जाए. इसलिए उस दौर में, कॉलेजियम सिस्टम का उल्लेखनीय विरोध भी नहीं हुआ.

लेकिन अब कॉलेजियम सिस्टम की बुराइयां सामने आ चुकी हैं. इसके बाद से न्यायपालिका में फैसले देने की रफ्तार बेहद सुस्त पड़ गई है. कई विवाद भी हुए. इस कारण न्यायपालिका की काफी बदनामी हुई है और न्यायपालिका कई बार संकट में भी आई है. ताजा उदाहरण कॉलेजियम के आपसी विवाद के कारण चार जजों की नियुक्ति न हो पाना है.

चीफ जस्टिस यूयू ललित जिन चार जजों को नियुक्त करना चाहते थे, उसके लिए उन्होंने कॉलेजियम की बैठक बुलाई. पर जस्टिस डी.वाई चंद्रचूड़ उस रोज रात 9 बजे तक मुकदमों की सुनवाई करते रहे. इस वजह से बैठक हो ही नहीं पाई. जस्टिस ललित ने चारों कॉलेजियम जजों से सहमति लेने के लिए पत्र भेजा, जिसका दो जजों ने विरोध कर दिया. इस बीच कानून मंत्रालय ने जस्टिस ललित से कहा कि वे अगले चीफ जस्टिस के लिए नाम भेजें. इसके बाद कॉलेजियम की बैठक करना मुमकिन नहीं था. इसलिए चार जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया को खत्म कर दिया गया. ये बेहद अशोभनीय था और इससे कॉलेजियम के बीच जजों की नियुक्ति को लेकर चलने वाले दांव-पेच उजागर हो गए.

कहना मुश्किल है कि आने वाले दिनों में क्या इससे भी बड़े संकट आएंगे?

ऐसी स्थिति में सरकार की ओर से कानून मंत्री ने कॉलेजियम सिस्टम को लेकर सार्वजनिक बहस छेड़ दी है. ये संभव है कि सरकार आने वाले दिनों में कॉलेजियम सिस्टम में सुधार के लिए कोई प्रस्ताव लेकर आए. हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट अपनी ओर से ही प्रक्रिया में कुछ सुधार करके उसके दोष को दूर करे. ये भी संभव है कि सरकार न्यायिक नियुक्ति के लिए नया विधेयक लेकर आए और जजों की नियुक्ति से राष्ट्रपति यानी सरकार की भूमिका को फिर से प्रभावशाली बनाए.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पहले कार्यकाल की शुरुआत में ही कॉलेजियम सिस्टम को खत्म कर नियुक्ति प्रक्रिया में सरकार, विपक्ष और जानकारों को शामिल करके आयोग बनाने की व्यवस्था लाने की कोशिश की थी, इसके लिए संविधान संशोधन भी किया गया और नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन कानून, 2014 भी पारित किया गया. लेकिन तब वे नए-नए आए थे और सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को असंवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया था.

अब जबकि कॉलेजियम सिस्टम की बुराइयां उभरकर सामने आ गई हैं, तब सरकार इस मसले में कूद पड़ी है. मुमकिन है कि उसका इरादा नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन कानून को नए सिरे से लाने का हो.

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